स्वर्ण मृग सीता माॅ को भा गया मन मे उसे पाने का विचार आ गया
कह बैठी मुझे वह मृग चाहिये मेरे लिये इसे ले आइये
इस एक स्वर्ण आकर्षण उन्हे जीवन भर किया परेशान
आज भी इसी मृग त्रष्णा से मे मर रहे अच्छे भले इंसान
वह तो राम जी का ही रचाया खेल था पर सबक हजार जरा करो विचार
आज स्वर्ण मृग के पीछे अपनो के लिये दोडने मे उमर बीत जाती है जिन्दगी रेत की तरह फिसल जाती है
उम्र भर का हासिल सिफर बीत गई दौडते दौडते उमर
राम जी बहुत कुछ सिखाते है नजर हो तो हम देख पाते है
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