Wednesday, November 23, 2016

कितना भी उॅचा उठ जाउ छू नही सकता आकाश

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मनुष्य की अभिलाशा की भर लू इन हाथो मे जमी आसमान पर छोटा पड जाता मेरा अस्तित्व इतना बडा जहान
पानी इतना नीला साफ इसे देख मेरा कलुष हो जाता गहरा, कहता मुझसे तू भी बह गंदा हो गया इसलिये की ठहरा
पर्वतो की उॅचाई देता नही पार दिखाई कराती मुझे मरे छोटेपन का एहसास कितना भी उॅचा उठ जाउ छू नही सकता आकाश

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