कृष्ण की बाॅसुरी जड चेतन को नचाती जिन्हे छुने को पेडो की डाल भी है झुक जाती
जिसकी मिल गई निगाह फिर वह कहाॅ जाती सुध बुध खो गोपियाॅ कृष्ण की बाॅसुरी पर नाॅचती गाती
जिनकी बाॅसुरी के स्वर आज भी गूॅज रहे वृदावन की हवाओ मे इसलिये दुनिया यहाॅ आ बेसुध हो जाती
यहाॅ चलता है आज भी आनंद रास दुनिया की हिंसा का करता अपहास यहाॅ आओ जिसे है आनंद की तलाश
जिसकी मिल गई निगाह फिर वह कहाॅ जाती सुध बुध खो गोपियाॅ कृष्ण की बाॅसुरी पर नाॅचती गाती
जिनकी बाॅसुरी के स्वर आज भी गूॅज रहे वृदावन की हवाओ मे इसलिये दुनिया यहाॅ आ बेसुध हो जाती
यहाॅ चलता है आज भी आनंद रास दुनिया की हिंसा का करता अपहास यहाॅ आओ जिसे है आनंद की तलाश
No comments:
Post a Comment